jivan jine ki kala

🌳🦚आज की कहानी🦚🌳

💐💐मेरे जीवन जीने की कला💐💐


मेरे बचपन मे मेरे गाँव में पंचायत लगी थी। वहीं थोड़ी दूरी पर एक सन्त ने अपना बसेरा किया हुआ था। जब पंचायत किसी निर्णय पर नहीं पहुच सकी तो किसी ने कहा कि क्यों न हम महात्मा जी के पास अपनी समस्या को लेकर चलें, अतः सभी सन्त के पास पहुँचे।

जब सन्त ने गांव के लोगों को देखा तो पुछा कि कैसे आना हुआ ? तो लोगों ने कहा, “महात्मा जी गाँव भर में एक ही कुआँ हैं और कुँए का पानी हम नहीं पी सकते, बदबू आ रही है।”

सन्त ने पुछा- हुआ क्या ? पानी क्यों नहीं पी सकते हो ?

लोग बोले- तीन कुत्ते लड़ते लड़ते उसमें गिर गये थे। बाहर नहीं निकले, मर गये उसी में। अब जिसमें कुत्ते मर गए हों, उसका पानी कैसे पिये महात्मा जी ?

सन्त ने कहा - 'एक काम करो, उसमें गंगाजल डलवाओ।

कुएं में गंगाजल भी आठ दस बाल्टी छोड़ दिया गया। फिर भी समस्या जस की तस रही। लोग फिर से सन्त के पास पहुँचे। अब सन्त ने कहा, "भगवान की कथा कराओ।”

लोगों ने कहा, “ठीक है।” कथा हुई, फिर भी समस्या जस की तस। लोग फिर सन्त के पास पहुँचे। अब सन्त ने कहा, उसमें सुगंधित द्रव्य डलवाओ। सुगंधित द्रव्य डाला गया, नतीजा फिर वही। ढाक के तीन पात। लोग फिर सन्त के पास, अब सन्त खुद चलकर आये।

लोगों ने कहा- महाराज ! वही हालत है, हमने सब करके देख लिया। गंगाजल भी डलवाया, कथा भी करवायी, प्रसाद भी बाँटा और उसमें सुगन्धित पुष्प और बहुत चीजें डालीं।



अब सन्त आश्चर्यचकित हुए और पूछा- कि तुमने और सब तो किया, वे तीन कुत्ते जो मरे पड़े थे, उन्हें निकाला कि नहीं ?

लोग बोले - उसके लिए न आपने कहा था न हमने निकाला, बाकी सब किया। वे तो वहीं के वहीं पड़े हैं।

सन्त बोले - "जब तक उन्हें नहीं निकालोगे, इन उपायों का कोई प्रभाव नहीं होगा।"

ऐसी ही कथा हमारे जीवन की भी है। इस शरीर नामक गाँव के अंतःकरण के कुएँ में ये काम, क्रोध और लोभ के तीन कुत्ते लड़ते झगड़ते गिर गये हैं।


फिर मेरे युवा होने पर एक बड़ी मज़ेदार घटना हुई थी, मैं मोटरसाइकिल चला रहा था, शाम का समय था,मंसूरी से नीचे देहरादून आ रहा था, मोटरसाइकिल की गति अच्छी रही होगी, मंसूरी के आसपास बारिश होने लगी, और सड़क गीली थी, मैं एक मित्र का गाया हुआ गाना गुनगुना रहा था- "रोते हुए आते है सब,हंसता हुआ जो जाएगा"।

मैं उस गाने की पंक्तियों को लगातार गुनगुनाते हुए मोटरसाइकिल चला रहा था। तो गाड़ी एक जगह फिसल गई, गिरी नहीं, फिसल गई, अच्छी गति में थी, फिसली, उतनी ही गति से पाँव लगा कर रोकने पड़ी, तो एड़ी में कुछ चोट लगी, फिर आगे बढ़ लिए।

आगे बढ़ने के थोड़े समय बाद ख्याल आया कि इतना सब कुछ हो गया, और मैं तब भी गाता रहा। एक क्षण को भी गाना रुका नहीं था, और ये ख्याल भी नहीं आया कि अभी भी गाए ही जा रहा हूँ।

अब कहाँ तो दोसौ किलो की मशीन को संभाल रहे हो, और ये रहा है, वो हो रहा है, और कहाँ साथ में गाना गुनगुना रहे हो ?

जैसे दो अलग-अलग व्यक्ति हों, एक वो जो अपना संसारी कामकाज कर रहा है, और दूसरा जो अपना काम कर रहा है। उस ‘दूसरे’ को मतलब ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है। यही जीने की कला है- प्रकृति और पुरुष। प्रकृति को प्रकृति का काम करने दो, तुम पुरुष की भाँति जियो।

सभी सरल शांत जीवन जीने के लिए उपाय पूछते हैं तो लोग बताते हैं, तीर्थयात्रा कर लो, गंगा स्नान कर लो, थोड़ा पूजा करो, थोड़ा पाठ, सब करते हैं, पर बदबू उन्हीं काम, क्रोध और लोभ के दुर्गुणों की आती रहती है तो पहले इन्हें निकाल कर बाहर करें फिर मस्ती के गीत गुनगुनाइए, जीवन मे वो नाद अहर्निश बजता रहे, उसी को मृत्यु के पार होना भी कहते हैं क्योंकि ‘तुम’ उसे नहीं गा रहे हो, तो तुम्हारी मृत्यु के बाद भी वो रुक नहीं सकता तुम नहीं रहोगे, वो गीत स्वयं को गुनगुनाता रहेगा।

स्मरण रहे कि जब प्रकृति अपना काम करती है, तो जीवन से एक चीज़ तुरंत चली जाती है- गंभीरता। तुम्हें यह अहसास होना शनः शनः कम हो जाता है कि कुछ भी महत्वपूर्ण है। आँखें देख रही हैं, हाँ ठीक है, संसार है, कामधंधा है, रोज़ी-रोटी है, देखभाल है, मधुर लगे तो कह दो, ‘लीला है’। आडी-तिरछी लगे तो कह दो, ‘प्रपंच है’। जो कहना है कह दो पर जो भी है, परदे पर चलता हुआ एक खेल है। ये सब एक चलचित्र है और सभी मित्र,बन्धु तथा सगे इसके पात्र...





🚩🚩जय श्री राम🚩🚩 
 
   
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